किसी की मौत, किसी की जिन्दगी,
किसी के गम किसी के आंसू,
कहीं भावों का भवंर तो कहीं जीवन का सफ़र.
सब से इतर
मीडिया के लिए एक खबर.
निरुपमा की मौत या ह्त्या
मीडिया ने देखा अपना बाजार....
लगाई छलांग....
बनना था समाज का ठेकेदार.....
उठा लिया बीड़ा.......
उस बाप का क्या.....
उस माँ का क्या.......
जिसकी बिन ब्याही बेटी पेट से हो,
समाज के बंधन सभी तोड़ने को आतुर मगर,
जब बात अपने पे आती तो सभी मूक बघिर बन जाते...
निरुपमा को मरना ही था,
या तो खुद को मारना था या...
अपने उन बूढे माँ बाप को.....
बागबान देखने वालों ने सिनेमा हाल में जम कर आंसू बहाए,
आंसुओं के कतरे की हकीकत यहाँ नजर आयी....
जब बंधन ही नहीं निभाना,
समाज के लिए ना कोई पैमाना,
तो भला क्यूँ कर रिश्तों के बंधन में अटकते हो,
तोड़ दो समाज के पैमाने को,
रिश्तों की दुहाई को,
निरुपमा तुम ना रही,
तुम्हें रहने का हक़ भी नहीं था,
तुम्हारे साथ क्या हुआ...
इसके लिए भी,
तुम्हारे मरने के बाद
तुम्हारे शव को बेचने के लिए,
तुम्हारे ही मीडिया वाले सामने आ गये,
तुम्हारे शव को बेच रहें हैं,
और तुम्हारे माँ बाप को जलील कर रहे हैं,
तुम्हारे जीवन से इतर मरना भी तुम्हारे माँ बाप के लिए दुश्वार है,
निरुपमा तुमने जन्म ही क्यूँ लिया,
ये मौत का बाजार है.
मीडिया की गुनगुनाती शाम.
मौत के बाजार में मीडिया का मधुर संगीत बज रहा है.
----रजनीश के झा----