महिला पर महिला की व्यथा !!!




एक पत्रकार की कविता !!!!


मुझे नफरत है


मुझे नफरत है तुम्हारी हर एक बात से,

मुझे नफरत है तुम्हारे उस नाम से (आवेश) जो तुम्हारे माँ- बाप ने बिना सोचे तुम्हें दिया

मुझे नफरत है तुम्हारी हर बात से जो झूठ का पुथिल्ला बनकर मेरे साथ चली

अब मुझे नफरत है उस हर राह से जिस राह से मै तुम्हारे साथ गुजरी

मुझे नफरत है हर उस गीत से जो मैंने तुम्हारी आवाज़ में सुने

मुझे नफरत है दुनिया के हर पुरुष से जो तुम्हारा रूप लेकर मेरे सामने आये

मुझे नफरत है उस औरत से जो तुम्हारे नाम का झूठा सिन्दूर लगाती है,

जिसे तुम विधवा कहते हो क्योकि वो विधवा से भी बत्तर है

विधवा तो औरत पति के मरने के बाद कहलाती है पर.....

वो तुम्हारे रहते ही तुमने उसे विधवा बना दिया

मुझे नफरत है उस औरत से जिसका पति उसे विधवा कहे और बड़े भाई से सम्बन्ध बताये

(कहते है एक बार पार्वती ने सीता का रूप धारण करके राम के सामने अपना समर्पण किया था
शिव ने उन्हें माँ समझकर उनका परित्याग कर दिया था)

आज जब कोई पुरुष अपनी ही पत्नी को किसी और की विधवा बताता है तो .....

वो सुहागिन कैसे हो सकती है वो तो विधवा से भी बत्तर है

मुझे नफरत है उस कोख से जिसने ऐसे नीच को जनम दिया

मुझे नफरत है उस बहन से जिसका भाई उसे बाँझ बता रहा है

मुझे दया है उन बच्चो पर जिनका खुद का पिता अपनी ही औलादों को....

दूसरे की औलाद बताकर खुद संरक्षक बनने की दया दिखाता है

मुझे नफरत है उस हर नारी से जो ऐसे पुरुषों की ओछी और संवेदनहीन बातों पर प्रसन्न होकर उसके लिए तारीफों के पुल बांधती हैं

मुझे नफरत है, दुनिया के हर उस इंसान से जो किसी भी लड़की के मासूम भावों के साथ खेलता है,
उसे लड़की से औरत बनाता है

और औरत से वैश्या बनाता है

मुझे नफरत है हर उस नारी से जो अपने आत्मसम्मान को दबा देती है

और इस पुरुष की काम-वासनाओं का शिकार बनती है

आज मुझे नफरत है उस हर शब्द से जो प्यार शब्द से जुड़ते हैं....

और इंसान को बेबस बना देते हैं

आज नफरत है मुझे अपने नारी अस्तित्व से मै किसी भी नारी की मदद नहीं कर सकती


माही ( स्वतंत्र पत्रकार )