इस खोज से दुनिया के लिए ख़तरा बनते जा रहे प्लास्टिक कचरे से निजात पाने में वैज्ञानिकों को आशा की किरण दिखाई दे रही है ।
विश्वविद्यालय के जैव प्रौद्योगिकी विभाग के वैज्ञानिकों ने इन जिवाणुओं की खोज केंद्र सरकार की एक परियोजना के तहत की है ।
वैज्ञानिकों के मुताबिक़ प्लास्टिक न तो नष्ट होता है और न सड़ता है । प्लास्टिक के कचरे को जलाने से ऐसी गैसें निकलती हैं जो फेफड़ों के कैंसर का कारण बन सकती हैं ।
विश्वविद्यालय के जैव प्रौद्योगिकी विभाग की प्रमुख डॉक्टर रीता गोयल और डॉक्टर एमजीएच ज़ैदी ने इस विषय पर कई साल तक शोध किया ।इस दौरान इन वैज्ञानिकों ने मिट्टी में पाए जाने वाले 75 ऐसे जीवाणुओं खोजे की जिनके जोड़ों से प्लास्टिक का विघटन हो सकता है ।
हिमालयी क्षेत्र की मिट्टी में पाए जाने वाले स्यूडोमोनास, एसिटीनो वैक्टर बेसिकल जैसे जीवाणु इसमें सहायक हो सकते हैं ।
इन जीवाणुओं का न तो जैव संवर्धन किया गया है और न ही ये किसी तरह ख़तरनाक़ हैं ।
वैज्ञानिकों ने 78 जीवाणुओं से इस काम लिए 28 जीवाणु तैयार किए हैं ।
डॉक्टर गोयल कहती हैं, "प्लास्टिक के परमाणुओं के बीच बंधन इतना मज़बूत होता है कि उसे ख़त्म करना मुश्किल है लेकिन उसे इन जीवाणुओं का मिश्रण नष्ट कर देता है । "
इसके लिए शर्त यह है कि इन जीवाणुओं को एक निश्चित अनुपात में ही मिलाया जाए ।
डॉक्टर गोयल ने बताया, ''हमने जीवाणुओं का जो मिश्रण (वैक्टीरियल कंसोर्टियम) तैयार किए हैं वे सभी तरह के प्लास्टिक परमाणुओं के बंधनों को तोड़ कर नष्ट कर सकते हैं । "
जीवाणुओं के इस मिश्रण की डॉक्टर एमजीएच ज़ैदी ने प्रयोगशाला में जाँच-पड़ताल की हैं ।
उन्होंने कहा,''शोध में यह सिद्ध हो गया है कि प्लास्टिक के साथ ज़मीन में गाड़े जाने के बाद ये मिश्रण तीन हफ़्ते में इन्हें 24 फ़ीसदी तक विघटित कर देते हैं । "
विश्वविद्यालय प्रशासन अब इस शोध का पेटेंट कराने में जुट गया है ।
विश्वद्यालय का कहना है कि इस कंसोर्टियम की जानकारी तभी सार्वजनिक की जाएगी जब इस शोध का पेटेंट हो जाएगा.
एक अनुमान के मुताबिक दुनियाभर में फैले प्रदूषण में प्लास्टिक के कचरे का योगदान 30 फ़ीसद तक है। ऐसे में यह खोज काफी महत्वपूर्ण साबित होगी ।
विश्वविद्यालय के कुलपति प्रोफ़ेसर वीएस बिष्ट ने बताया कि यह शोध दुनिया की कई वैज्ञानिक पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुआ है ।
जर्नलों में प्रकाशित होने के साथ-साथ इस शोध को देश के कई प्रमुख शोध संस्थानों ने अपनी जांच में सही पाया है ।
इनमें लखनउ स्थित सेंट्रल ड्रग रिसर्च इंस्टीट्यूट (सीडीआरआई), आईआईटी रुड़की और नेशनल सेंटर ऑफ़ सेल्यूलर साइंस पुणे के नाम शामिल है ।